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स्पोर्ट्स डेस्कः एशियन गेम्स में इस बार कुछ नई कहानियां निकल कर सामने आई हैं। गरीबी, उम्र व निराशाओं को पार कर हौसलों के उड़ान की कहानियां। जिनका इतिहास बचपन से दर्द भरा रहा। तो आइए जानें कुछ उन खिलाड़ियों की जिंदगी से जुड़ीं दर्दभरी बातों के बारे में, जिन्होंने बुरे वक्त से निकलकर आज दुनियाभर में अपनी पहचान बना ली है-

पिंकी बलहारा
उपलब्धि :  कुराश प्रतियोगिता में सिल्वर मेडल

18वें एशियाई खेलों की कुराश प्रतियोगिता में भारत को सिल्वर दिलवाने वालीं पिंकी बलहारा के लिए यह सफर आसान नहीं रहा। एशियन गेम्स में आने से पहले उन्होंने अपने परिवार के एक नहीं बल्कि 3 सदस्यों की मौत देखी, जिसने उन्हें अंदर तक तोड़ दिया था। लेकिन अपने पिता के सपने को पूरा करने के लिए पिंकी ने खुद को संभाला और देश के लिए मेडल जीता। पिकी का कहना है कि मैं बहुत लड़ाकू हूं, शायद इसी लड़ाकूपन ने कुराश में मुझे सिल्वर दिला दिया है।
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मधु 
उपलब्धि :  महिला कबड्डी में सिल्वर मेडल

भारतीय महिला कबड्डी ने सिल्वर मेडल अपने नाम किया। टीम में खिलाड़ी थी मधु। मधु को बचपन से ही कबड्डी में शाैक रहा। उन्होंने कहा कि मेरे खेल को लेकर परिवार ने साथ तो दिया मगर परिवार वाले चिंता में भी रहते हैं। अभी तक तो यही लगता था, मगर अब जब मैं एशियाड में मेडल लेकर लौटी हूं तब घर वालों ने चैन की सांस ली है। अभी मैं दादरी के एक कॉलेज से बीपीई की पढ़ाई भी कर रही हूंं। मैं नजफगढ़ के दिचाऊ कलां में रहती हूं और मेरे यहां लड़कियों के लिए खेल का माहौल होना एक ख्वाब जैसा है। मगर मेरी लगन ने मुझे इस ख्वाब को सच करने की ताकत दी और आज मेरी तपस्या सबके सामने है।

दिव्या काकरान
उपलब्धि : फ्री स्टाइल रेसलिंग में ब्रॉन्ज मेडल 

एशियन गेम्स में दिव्या ने फ्री स्टाइल रेसलिंग में ब्रॉन्ज मेडल जीता। जीत के बाद कहती हैं कि मेरी जीत के असली हकदार मेरे पिता सूरज काकरान हैं, उनकी ही तपस्या है जो आज मैं इस मेडल को लाने की ताकत जुटा पाई। रेसङ्क्षलग का सफर शुरू करने से पहले मेरा बड़ा भाई देव कुश्ती किया करता था और उसको देख जब मैंने इसकी इच्छा जताई तो पिता ने बढ़ावा दिया। पहले तो पिता चाहते थे दोनों ही लड़े मगर घर की तंगहाली को देखते हुए भाई ने कुश्ती से किनारा कर लिया। कुश्ती में पिता लंगोट बेचा करते थे। जो मेरी मां सिला करती थी। उन पैसों को मेरी डाइट पर खर्च किया जाता। 68 किग्रा फ्री स्टाइल में दमदार प्रदर्शन कर ब्रॉन्ज मेडल अपने नाम करने का सपना मेरा नहीं बल्कि पिता का पूरा हुआ। 
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अमन सैनी 
उपलब्धि :  तीरंदाजी में सिल्वर मेडल

अमन कहते हैं कि तीरंदाजी मेरा पहला खेल नहीं है, मैंने अपने स्कूल में ताइकवांडो सीखना शुरू किया, उसमें काफी अच्छा किया। यहां तक की उसमें स्टेट लेवल का मेडल लाया, मगर एक हादसा होने के चलते मुझे यह खेल छोडऩा पड़ा और तब मुझे मेरे कोच ने तीरंदाजी में जाने को कहा और पहली बार मेरा एशियाड में चयन हुआ,जिसमें सिल्वर मेडल हाथ लगा। मेरे लिए गर्व की बात यह भी थी कि उस पूरे कंपाउंड में मैं सबसे युवा खिलाड़ी था। हम शुरू से ही नांगलोई में रहे हैं। मेरे पिता शिव कुमार सैनी नांगलोई में ही इलेक्ट्रिकल शॉप चलाते हैं। तीरंदाजी के लिए मुझे काफी परेशानियां भी उठानी पड़ी, जिसमें पिता जी ने पूरा साथ दिया। घर में कमाने वाले मेरे पिता ही हैं और खाने वाले पिता को मिलाकर हम चार लोग हैं। मेरे पिता पर बड़ी बहन दिव्या सैनी की पढ़ाई के खर्च का बोझ रहा है। बावजूद इसके मेरे खेल को उन्होंने रुकने नहीं दिया। 
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संदीप कुमार
उपलब्धि : ‘सेपक टकरा’ में ब्रॉन्ज मेडल

संदीप कहते हैं कि मेरा इस खेल से लगाव महज 5-6 साल की उम्र में ही हो चला था और इसको खेलकर ही मैं बड़ा होता चला गया। जब मैंने ‘सेपक टकरा’ को खेलना शुरू किया तब मेरी उम्र बहुत छोटी थी और इसको खेलने के दस साल बाद तक भी लोग इस खेल से रूबरू नहीं हो पाए थे। कॉलोनी के बच्चे हंसते थे, बोलते थे कि गेंद को सर से मारते तो देखा है मगर पैर से मारकर नेट पार कराना ये पहली बार दिख रहा है। कॉलोनी के बाहर ही एक छोटा गंदा सा पार्क बना हुआ है। जिसमें किसी तरह जगह बनाकर अभ्यास शुरू किया। साथ के तीन दोस्त और मेरे साथ जुड़ गए। हम चारों देर रात तक इसका अभ्यास करते रहते और वही मेहनत है, जो हमारी रंग लाई है। मेरे जीवन को बदलने में मेरे कोच का सबसे बड़ा योगदान रहा। जिन्होंने न केवल मुझे इसका रास्ता बताया साथ ही समय पर पैसे और खान-पान से भी मुझे मदद की। बेहद गरीब परिवार से निकल कर आज मैं न केवल मेडल ला सका हूं बल्कि देश के सशस्त्र सेवा बल (एसएसबी) में कॉन्सटेबल पद पर तैनात हूं, जो इस खेल की बदौलत ही हो पाया। 

धीरज कुमार 
उपलब्धि :  ‘सेपक टकरा’ में ब्रॉन्ज मेडल

धीरज ने कहा कि मैं एक ब्रॉन्ज मेडलिस्ट हूं। मगर इस मेडल को जीतने के लिए जितनी मेहनत मैंने नहीं की उससे कहीं अधिक इस मेडल तक पहुंचने का सफर कठिन रहा है। मजनूं का टीला कॉलोनी में एक ऐसा घर जहां मुझे और मेरे छोटे भाई को घर के बाहर सोना पड़ता था। क्योंकि एक कमरे के घर में सिर्फ दो लोग ही सो सकते थे और कॉलोनी का माहौल कुछ ऐसा कि वहां अगर मुझे सही राह नहीं दिखाई जाती तो आज मैं गलत रास्ते पर ही होता। पिता दौलत राम एक ऑटो ड्राइवर और ऑटो भी किराये का, जो कभी मिलता था तो कभी नहीं मिलता था। कई बार अपने फटे जूते ही पहनकर अभ्यास किया है। एशियन गेम्स में हमारी उम्मीद देश के लिए मेडल लाने से ज्यादा अपना अंधेरे से उजाले में आने का ज्यादा था। आज पूरी कॉलोनी हमें खिलाड़ी कहकर पुकारती है। 

हरीश कुमार 
उपलब्धि : ‘सेपक टकरा’ में ब्रॉन्ज मेडल

इनका कहना है कि ब्रॉन्ज मेडल शायद मेरी जिद ही थी जो आज मुझे लोग एशियाड का चैंपियन कह कर पुकार रहे हैं, वर्ना हालात और मजबूरियों ने मुझे एक चाय वाला बनाने की ठानी हुई थी। क्योंकि पिता मदनलाल का चाय का स्टॉल, जो कॉलोनी के बाहर ही एक छप्पर के नीचे बना हुआ है और हमारी गरीबी को दूर करने का एक मात्र साधन भी था और उस स्टॉल से पेट भरने वाले 7 लोग। कई बार चाय भी बेची है। मगर खेल को नहीं छोड़ा। एशियन गेम्स में ब्रॉन्ज मेडल तक का यह सफर काफी परेशानियों भरा रहा है। छोटी उम्र में एक बार कॉलोनी के बाहर मणिपुर के खिलाडिय़ों को देखकर इस खेल का सपना देखना शुरू किया। 
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ललित कुमार 
उपलब्धि : ‘सेपक टकरा’ में ब्रॉन्ज मेडल

ललित का मानना है कि इस खेल ने उनकी जिंदगी बदल कर रख दी। उन्होंने कहा कि जो लोग मुझे आवारा कहा करते थे आज वो ही मेरा फूल माला से स्वागत कर रहे हैं, बेहद गरीब परिवार में मेरा जन्म हुआ है। दिल्ली के मजनूं का टीला कॉलोनी में एक कमरे का मकान और रहने वाले पांच लोग और पिता हरेंद्र कुमार, ऑटो ड्राइवर पिता अपनी कमाई से या तो घर चला सकते थे या फिर मुझे खेल में मदद कर सकते थे। इसलिए कई बार तो प्रैक्टिस के लिए भूखे पेट ही दौडऩा पड़ता था वो भी पूरा दिन। सेपक टकरा का अभ्यास टायर की ट्यूब का गुच्छा बनाकर किया है। क्योंकि सेपक टकरा की यह बॉल देश में नहीं मिलती। इंदिरा गांधी स्टेडियम में अभ्यास के लिए पैसे नहीं होते थे। मां बड़ी मुश्किल से दस रुपए देती थी। जिसमें या तो मैं बस का किराया दे सकता था या अपनी डाइट ले सकता था। पैसे बचाने के लिए लिफ्ट लेकर जाता था। कई किलोमीटर तक पैदल भी चलता था।