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नई दिल्लीः सुनील गावस्कर ने पीटीआई के साथ विशेष इंतजाम के तहत यह कालम लिखा है- ‘सुनील, दुख की बात, वह नहीं रहे’। मुझे तोड़ देने वाले ये शब्द सुनने को मिले कि ‘मेरे कप्तान’ अजित वाडेकर का निधन हो गया। कुछ ही समय पहले मैं उन्हें कार में डालकर अस्पताल ले जाने में मदद करने का प्रयास कर रहा था क्योंकि एंबुलेंस को आने में 15 मिनट और लगने वाले थे और तब भी लग रहा था कि उनके बचने की उम्मीद काफी कम है। जब मैंने रणजी ट्राफी में मुंबई की ओर से पदार्पण किया तो अजित वाडेकर मेरे कप्तान थे और जब मुझे भारतीय टीम में खेलने का मौका मिला तो भी वह मेरे कप्तान थे। इसलिए मेरे लिए वह हमेशा ‘कप्तान’ रहेंगे।          

गावस्कर लिखते हैं कि वह शिवाजी पार्क जिमखाना और मैं दादर यूनियन स्पोर्टिंग क्लब से था, जो तब बड़े प्रतिद्वंद्वी क्लब थे लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ा क्योंकि मैं पहले प्रशंसक था। उनके दिनों शायद ही कोई सप्ताहांत निकलता हो जब आपको सुनने को नहीं मिलता हो कि वाडेकर ने शतक जड़ा। वह स्थानीय और रणजी ट्राॅफी क्रिकेट में इतना शानदार प्रदर्शन कर रहे थे कि कई लोगों के लिए यह हैरानी भरा था कि उन्होंने काफी देर से 1966 में गैरी सोबर्स की वेस्टइंडीज की टीम के खिलाफ पदार्पण किया। पांच साल बाद उन्होंने गैरी सोबर्स की टीम के खिलाफ ही पहली बार भारतीय टीम की अगुआई की और श्रृंखला जीती, वेस्टइंडीज को पहली बार हराया। कुछ महीने बाद उनकी अगुआई में भारत ने एक और एतिहासिक जीत दर्ज की जब भारत ने इंग्लैंड को इंग्लैंड में पहली बार हराया।
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उन्हें वे लोग तंज में भाग्यशाली कप्तान कहते थे जो यह तथ्य नहीं पचा पाए कि उन्होंने कप्तान के रूप में करिश्माई मंसूर अली खान पटौदी की जगह ली। चयन समिति के तत्कालीन अध्यक्ष महान बल्लेबाज विजय मर्चेन्ट को भी आलोचना का सामना करना पड़ा क्योंकि उनके निर्णायक वोट ने ही तब वाडेकर को नया भारतीय कप्तान बनाया। इन दो जीतों और इसके एक साल बाद भारत में एक और जीत के बावजूद ना तो विजय मर्चेंट और ना ही अजित वाडेकर को भारत को जीत की हैट्रिक दिलाने का श्रेय दिया गया।
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अजित ने अचानक की टेस्ट क्रिकेट से संन्यास ले लिया जब एक अन्य महान भारतीय पाली उमरीगर की अगुआई वाली चयन समिति ने दलीप ट्राफी की पश्चिम क्षेत्र की टीम में उन्हें जगह नहीं दी। इसके बाद उन्होंने अपने बैंकिंग करियर पर ध्यान दिया और मुंबई क्रिकेट संघ के साथ क्रिकेट प्रशासन पर भी। वह 1990 के शुरुआती दशक में भारतीय टीम के सफल मैनेजर/कोच रहे। जब हम कुछ खिलाडिय़ों ने अपार्टमैंट ब्लाक बनाने के प्लाट के लिए महाराष्ट्र सरकार से आग्रह किया तो अजित इसमें भी आगे रहे और सोसाइटी में उमरीगर भी शामिल थे जो यह दर्शाता था कि अपने सीनियर के प्रति उनके मन में कोई कटु भावना नहीं थी।      
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जब इमारत बनी तो प्रमोटर होने के नाते उन्हें सबसे ऊपर का तल मिला और मैं उनके ठीक नीचे रहता था। वह हमेशा मजाकिया लहजे में कहते थे, ‘सनी के ऊपर सिर्फ मैं हूं।’ हाल के समय में मेरी यात्रा के कार्यक्रम के कारण हम बामुश्किल मिल पाते थे लेकिन जब भी हम मिलते थे तो उनका हंसी मजाक चलता था। शायद ही ऐसा कोई दिन हो जब मैंने उनके शब्दों ‘अरे का रे’ की नकल नहीं की हो। मैं ही नहीं बल्कि सचिन तेंदुलकर भी मुझे बताता था कि वह भी दिन में कम से कम एक बार ऐसा कहता है। मेरा कप्तान अब नहीं रहा लेकिन जब भी मैं कहूंगा ‘अरे का रे’ तो वह हमेशा मेरे साथ रहेंगे।