‘छोटे दल’ निभाएंगे ‘बड़ी’ चुनावी भूमिका

Edited By ,Updated: 06 Apr, 2024 05:15 AM

small parties will play a big electoral role

केंद्रीय सत्ता के लिए हो रहे लोकसभा चुनाव में छोटे और क्षेत्रीय दल ज्यादा बड़ी भूमिका निभाते नजर आ रहे हैं। जिस तरह सत्तारूढ़ भाजपा और मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस ने छोटे-छोटे दलों को इकट्ठा कर व्यापक गठबंधन बनाए वह तो इन दलों के महत्व का प्रमाण है...

केंद्रीय सत्ता के लिए हो रहे लोकसभा चुनाव में छोटे और क्षेत्रीय दल ज्यादा बड़ी भूमिका निभाते नजर आ रहे हैं। जिस तरह सत्तारूढ़ भाजपा और मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस ने छोटे-छोटे दलों को इकट्ठा कर व्यापक गठबंधन बनाए वह तो इन दलों के महत्व का प्रमाण है ही, चुनावी मुकाबले में भी ये दल बड़ी भूमिका में दिख रहे हैं। खासकर सत्तारूढ़ दल भाजपा और उसके नेतृत्व वाले एन.डी.ए. की बात करें तो कड़ी चुनौती ये दल ही पेश करेंगे। देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस मुख्य विपक्षी दल भी है, लेकिन जमीनी राजनीतिक हकीकत अलग है। 2014 के लोकसभा चुनाव में मात्र 44 और फिर 2019 के चुनाव में 52 सीटों पर सिमट गई कांग्रेस बमुश्किल दर्जन भर राज्यों में ही अपने दम पर चुनाव लडऩे की हालत में है। 

जीत की संभावना उनमें से भी आधे से कम राज्यों में है। फिलहाल कांग्रेस की सिर्फ तीन राज्यों हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक और तेलंगाना में सरकार है। इसके अलावा वह तमिलनाडु और झारखंड में सत्तारूढ़ गठबंधन का हिस्सा है। ऐसे में अपने लिए 370 और एन.डी.ए. के लिए 400 लोकसभा सीटों का नारा दे रही भाजपा को चुनौती दे पाना कांग्रेस के वश की बात नहीं लगती। दिल्ली, हरियाणा, गुजरात, गोवा और चंडीगढ़ में आप से गठबंधन कर तथा मध्य प्रदेश में समाजवादी पार्टी के लिए एक लोकसभा सीट छोड़ कर कांग्रेस ने जमीनी राजनीति और अपनी सीमाओं को स्वीकार भी कर लिया है। बेशक दक्षिण भारत में कर्नाटक और तेलंगाना के अलावा हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में मुख्यत: कांग्रेस पर ही मोदी का विजय रथ रोकने की जिम्मेदारी होगी, पर अतीत का अनुभव ज्यादा उम्मीद नहीं जगाता। 

आखिर हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और राजस्थान में पिछली बार भाजपा सभी लोकसभा सीटें जीत गई थी। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और कर्नाटक में भी ज्यादातर सीटें भाजपा की झोली में गई थीं। तब तेलंगाना में सत्तारूढ़ बी.आर.एस. ने 17 में से सबसे ज्यादा 9 सीटें जीती थीं, जबकि भाजपा और कांग्रेस के हिस्से क्रमश: 4 और 3 सीटें ही आई थीं। पंजाब में अवश्य कांग्रेस ने 13 में से 8 सीटें जीती थीं, पर तब वह राज्य में सत्तारूढ़ दल थी। अब पंजाब में ‘आप’ की सरकार है। तब कांग्रेस के मुख्यमंत्री और प्रदेश अध्यक्ष रहे क्रमश: कैप्टन अमरेंद्र सिंह और सुनील जाखड़ अब भाजपा की शोभा बढ़ा रहे हैं। जिन नवजोत सिंह सिद्धू के चलते सारी उठापटक हुई थी, वह अब आई.पी.एल. में क्रिकेट कमैंटरी कर रहे हैं। 

कर्नाटक और तेलंगाना में अब कांग्रेस की सरकार होने के चलते समीकरण बदल सकते हैं, लेकिन लोकसभा चुनाव में भाजपा की जीत की ‘हैट्रिक’ रोकने की जिम्मेदारी मुख्यत: छोटे और क्षेत्रीय दलों पर होगी। देश की राजधानी दिल्ली के बाद पंजाब में भी अरविंद केजरीवाल की आप सत्तारूढ़ है। दिल्ली की 7 लोकसभा सीटों पर ‘आप’ और कांग्रेस मिल कर भाजपा की जीत की ‘हैट्रिक’ रोकने की कोशिश करेंगे, लेकिन उसी मकसद के साथ पंजाब में दोनों अलग-अलग लड़ेंगे। जाहिर है, दिल्ली के अलावा गुजरात और गोवा में भी भाजपा का ग्राफ नीचे लाने की कवायद में आप की भूमिका महत्वपूर्ण होने वाली है। 80 लोकसभा सीटों वाला उत्तर प्रदेश देश का सबसे बड़ा राज्य है। भाजपा पिछली बार वहां से अकेले 62 और सहयोगियों के साथ 64 सीटें जीतने में सफल रही थी। तब सपा-बसपा-आर.एल.डी. गठबंधन था और उसने 15 सीटें जीती थीं। इस बार सपा-कांग्रेस गठबंधन है। सपा 63 और कांग्रेस 17 सीटों पर लड़ रही है।

बड़ा सवाल यही है कि क्या यह गठबंधन भाजपा को पिछली जितनी सीटों पर भी रोक पाएगा? इसका जवाब भी मुख्य रूप से सपा पर निर्भर करेगा। बिहार में लालू के आर.जे.डी., कांग्रेस और लैफ्ट फ्रंट का गठबंधन है। आर.जे.डी. 26, कांग्रेस 9 और लैफ्ट 5 सीटों पर लड़ेगा। वहां भाजपा-जे.डी.यू. समेत एन.डी.ए. को रोकने में सबसे अहम् भूमिका आर.जे.डी. की होने वाली है। यही स्थिति 48 लोकसभा सीटों वाले महाराष्ट्र की है। बेशक सीट बंटवारे में उद्धव ठाकरे की शिवसेना के बाद दूसरे नंबर पर कांग्रेस लग रही है, पर वहां एन.डी.ए. को रोकने में उद्धव की शिवसेना और शरद पवार की एन.सी.पी. का चुनावी प्रदर्शन निर्णायक साबित होगा। पश्चिम बंगाल में विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ में सीटों पर समझौता नहीं हो पाया। इसलिए वहां भाजपा, तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस-लैफ्ट गठबंधन के बीच त्रिकोणीय मुकाबला होगा। 

25 सीटों वाले आंध्र प्रदेश में कांग्रेस ने मुख्यमंत्री जगन मोहन रैड्डी की बहन शर्मिला को प्रदेश अध्यक्ष बना कर बड़ा दांव चला, लेकिन टी.डी.पी.-भाजपा-जन सेना पार्टी के गठबंधन का चुनावी प्रदर्शन सत्तारूढ़ वाई.एस.आर.सी.पी. के प्रदर्शन पर ज्यादा निर्भर करेगा। केरल में तो भाजपा अर्से से खाता खोलने के लिए तरस रही है। वहां लैफ्ट फ्रंट के एल.डी.एफ. की सरकार है तो पिछली बार ज्यादातर लोकसभा सीटें कांग्रेस की अगुवाई वाले यू.डी.एफ. ने जीत ली थीं। तमिलनाडु में कांग्रेस सत्तारूढ़ द्रमुक गठबंधन का हिस्सा है, पर वहां भी भाजपा का खाता खुलना-न खुलना मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन की चुनावी रणनीति पर निर्भर करेगा। 

14 सीटों वाले झारखंड में पिछली बार भाजपा 11 सीटें जीत गई थी, लेकिन गिरफ्तारी के चलते मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने को मजबूर हुए हेमंत सोरेन के साथ सहानुभूति की बदौलत सत्तारूढ़ झारखंड मुक्ति मोर्चा की अगुवाई वाला गठबंधन इस बार बेहतर प्रदर्शन कर सकता है। गठबंधन में कांग्रेस और आर.जे.डी. भी शामिल हैं। वाई.एस.आर.सी.पी. की तरह ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक का बी.जे.डी. भी किसी गठबंधन का हिस्सा नहीं है, पर वहां भाजपा का विजय रथ रोकने में सबसे बड़ी भूमिका उसी की रहेगी।-राज कुमार सिंह 
    

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