दास प्रथा, मानव तस्करी रोकने का कानून तो ठीक, पर नजरिया बदलना होगा

Edited By Pardeep,Updated: 04 Aug, 2018 03:11 AM

law of preventing human trafficking is fine but must change the point of view

यह कैसी विडम्बना है कि जो काम व्यक्ति अपने बारे में सोचने से भी घबराता है वही काम वह किसी दूसरे के साथ करने में कतई नहीं हिचकिचाता। अपनी सुख-सुविधा से लेकर मौज-मस्ती, मनोरंजन और यहां तक कि दूसरे की पीड़ा में आनंद खोजने की इच्छा इतनी बलवान हो जाती है...

यह कैसी विडम्बना है कि जो काम व्यक्ति अपने बारे में सोचने से भी घबराता है वही काम वह किसी दूसरे के साथ करने में कतई नहीं हिचकिचाता। अपनी सुख-सुविधा से लेकर मौज-मस्ती, मनोरंजन और यहां तक कि दूसरे की पीड़ा में आनंद खोजने की इच्छा इतनी बलवान हो जाती है कि उसके आगे सभी नियम, कानून पानी मांगने लगते हैं।

ऐसी घटनाएं रोज ही देखने और सुनने को मिल जाती हैं जो बर्बर युग के अत्याचार की तरह होती हैं। हो सकता है कि तब कोई कानून न हो, पर आज जब हमारा समाज आधुनिक, सभ्य कहलाने के लिए जमीन-आसमान एक किए रहता है तब इस प्रकार की अमानुषिक हरकतें उसी समाज के कुछ लोग क्यों करते हैं-इसकी गुत्थी सुलझने का नाम ही नहीं लेती और एक नया कांड सामने आ जाता है। 

दोषी को दंडित करने के लिए कड़े से कड़ा कानून बनाए जाने का लाभ तब ही है जब अपराधी को उसके किए की सजा तुरंत या एक निश्चित अवधि में मिल जाए और पीड़ित को एक नया जीवन मिलने की गारंटी हो जाए। ट्रैफिकिंग या दास प्रथा यानी किसी अन्य की मजबूरी का फायदा उठाते हुए अपने ही जैसे हाड़-मांस से बने इंसान को खरीदने-बेचने, उसे बंधुआ मजदूर बना कर रखने और यौन शोषण से लेकर उसकी जिंदगी को नर्क बना देने से बड़ा मानवाधिकार का उल्लंघन कोई और नहीं हो सकता। इसके लिए पहले से भी कानून थे लेकिन बहुत समय से इस बात की कोशिश की जा रही थी कि उन कानूनों के कमजोर प्रावधानों को हटाकर अपराधियों पर नकेल कसने का कानून बनाया जाए ताकि उन्हें किसी प्रकार से बचकर निकलने का अवसर न मिले। 

इसी प्रक्रिया में संसद में जिस कानून के बनाए जाने की चर्चा चल रही है उसके बारे में कुछ बातें जानना जरूरी हो जाता है। इसमें जो सबसे प्रमुख बात है वह यह कि पीड़ित को पुनर्वास का अधिकार मिले और उसके अंतर्गत सरकार व समाज उसके लिए इस प्रकार के इंतजाम करे जिससे उसके नए जीवन की शुरूआत हो सके और वह अपनी जिंदगी के पिछले अनुभव भूल कर अपने लिए सपने बुन सके और उनके पूरा होने का उसमें भरोसा हो। यह काम इतना बड़ा है कि इसके करने में सरकार कोई व्यवस्था तो बना सकती है लेकिन सफलता तब ही मिल सकती है जब समाज में यह भावना पनपने लगे कि किसी भी दशा में किसी का भी उत्पीडऩ उसे बर्दाश्त नहीं होगा और जो ऐसा करेगा उसके खिलाफ पूरा समाज खड़ा होगा। 

इस कानून का एक अहम पहलू यह है कि अब मुकद्दमे के दौरान न केवल पीड़ित की सुरक्षा का पक्का प्रबंध करने की जिम्मेदारी अधिकारियों पर होगी बल्कि गवाही देने वालों की सुरक्षा करने का भी दायित्व उन पर होगा। पहले होता यह था कि अपने सामने हो रहे अत्याचार की तरफ से आंख फेरने में ही अपनी भलाई समझ ली जाती थी क्योंकि अत्याचारी का डर ही ऐसा करने के लिए काफी था, पर अब ऐसा न हो, इसका प्रावधान इस बिल में है लेकिन यह अभी साफ नहीं है कि अपने कत्र्तव्य में ढिलाई बरतने वाले की पहचान और उसके खिलाफ क्या कार्रवाई होगी अर्थात उसे क्या दंड मिलेगा, इसके लिए कानून में क्या प्रावधान किया गया है? जब तक इस बारे में स्पष्ट रूप से कुछ नहीं बताया जाएगा तब तक कानून की मजबूती पर विश्वास कैसे हो पाएगा, यह सोचने का विषय है। 

इस कानून की एक अच्छी बात यह है कि सबूत पेश करने का भार अपराधी पर होगा और उसके दोषी साबित होने पर उसकी सम्पत्ति जब्त कर ली जाएगी और उसकी नीलामी कर उसका इस्तेमाल पीड़ित के पुनर्वास पर किया जाएगा। इसी के साथ अपराधी से प्राप्त धन जब्त कर लिया जाएगा और उसके बैंक खाते सील कर दिए जाएंगे तथा उसे अग्रिम जमानत भी नहीं मिल सकेगी। अपने आप में यह प्रावधान सही है लेकिन हमारे देश में जिस तरह मुकद्दमों के निर्णय तक पहुंचने का जो रास्ता है वह इतना लचीला है कि उसमें महीने नहीं, कई वर्ष लग जाते हैं। तब तो इस प्रावधान का कोई मतलब नहीं रह जाएगा। 

होना यह चाहिए कि गिरफ्तारी होते ही ये सब कार्रवाई पूरी हो जाए और मुकद्दमे का फैसला आने तक का इंतजार न किया जाए। उसके निर्दोष पाए जाने तक अपने धन-बल और पूंजी का अपने छूटने के लिए इस्तेमाल कर सकने का कोई भी मौका उस व्यक्ति को नहीं मिले। ऐसा हो जाने से कोई भी दुराचारी दुष्कर्म करने से पहले सौ बार सोचेगा और फिर भी यदि वह करता है तो उसकी धन-सम्पत्ति और समाज पर उसका दबदबा किसी काम नहीं आएगा। ऐसा होने पर ही इस कानून की सार्थकता सिद्ध हो सकती है वरना यह भी पहले कानूनों की तरह ढीला-ढाला ही बन कर रह जाएगा। 

दास प्रथा और मानसिकता 
यह सोचने पर कि कोई इंसान कैसे किसी को वेश्या बनने को मजबूर कर सकता है, स्कूल जाने की उम्र के बच्चों से मजदूरी करवाने लगता है या फिर उनसे भीख मंगवाने को ही अपना धंधा बना लेता है और यही नहीं, इसके लिए वह उन्हें अपाहिज तक बनाने से नहीं  चूकता। ऐसा लगता है कि उसे उनके प्रति ङ्क्षहसात्मक व्यवहार करने में मजा आता है। कुछ मामले तो ऐसे हैं कि जबरदस्ती शादी करने और स्त्री को परिवार में सभी के उपभोग की वस्तु  बनाने में उसे कोई झिझक नहीं होती। 

असल में इस सबके पीछे यह मानसिकता काम करती है कि हमारा उनके जीवन पर पूरा अधिकार है जो हमारी सेवा-चाकरी या नौकरी करते हैं, न केवल उन्हें बल्कि उनके परिवार में स्त्री और बच्चों तक को उनका हुक्म मानना चाहिए। एक छोटा-सा उदाहरण है। गांव-देहात या किसी छोटे शहर में एक रसूखदार पैसे वाला है जिसके यहां वेतन या बेगार पर काम करने वाले लोग हैं। अब उसके परिवार का कोई सदस्य शहर में बस गया तो उसे भी वहां उसी तरह के नौकर-चाकर चाहिएं जैसे वह बचपन से देखता आया है। अब शहर में तो ऐसे लोग आसानी से मिलते नहीं तो वह अपने घर से उन लोगों को आगे पढ़ाई करवाने या अच्छी नौकरी दिलवाने से लेकर उनकी शादी करवाने तक के बहाने से बुलवा लेता है और जब वे एक बार आ गए तो उनके वापस जाने के सभी रास्ते बंद कर दिए जाते हैं। 

अब शहर में उनसे बाल मजदूरी करवा लो, घरेलू काम करवा लो और यहां तक कि यौन शोषण तक कर लो, किसी तरह की कोई रुकावट नहीं है। हकीकत यह है कि इनमें सरकारी पदों पर विराजमान अधिकारी, शासन की बागडोर थामे राजनीति के खिलाड़ी, सांसद-विधायक से लेकर शहर में कारखाना फैक्टरी-उद्योग चलाने वाले तक शामिल हैं। इस हालत में यह उम्मीद करने से पहले मन में घबराहट होती है कि क्या ये सब उनको वह अधिकार देने को राजी हो जाएंगे जिनका शोषण करना वह अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझते हैं। अगर ऐसे अधिकारियों, नेताओं और कारखानेदारों की निरंकुशता पर रोक लगाई जा सकती हो और उनके सामंती व्यवहार करने की आदत को बदला जा सकता हो तब ही कानून की सार्थकता सिद्ध हो पाएगी। 

क्या कदम उठाए जाएं
सबसे पहले तो ऐसे व्यक्तियों को प्रोत्साहन दिया जाए और ऐसी संस्थाओं की स्थापना की जाए जहां विशेषकर बच्चों और किशोरावस्था की ओर बढ़ रहे युवा वर्ग को, जो किसी तरह उत्पीडऩ की दलदल से बाहर आ गए हैं उनके पुनर्वास की व्यवस्था इस तरह से हो ताकि कुछ तो खुली हवा, रोशनी मिल सके और उन्हें एहसास हो कि वे भी इंसान हैं। इस कार्य में बचपन बचाओ आंदोलन जैसे कार्यक्रमों और संस्थाओं की स्थापना की बहुत बड़ी भूमिका है। पूरे देश में जहां भी दासता से मुक्ति पाए बच्चे या बड़ी उम्र के लोग हों, उनके लिए उचित शिक्षा और कौशल विकास के अवसर पैदा किए जाएं और एक निश्चित अवधि में उनके दिलो-दिमाग से कड़वी यादों को निकालने के लिए शारीरिक और मानसिक चिकित्सा की ठोस व्यवस्था हो। हमारे देश में धनवानों की कमी नहीं है। अगर वे ही अपनी धन सम्पदा का थोड़ा-सा हिस्सा इस काम के लिए समर्पित कर दें तो इस समस्या का हल निकलना सम्भव है। 

जरूरी यह भी है कि समस्या को देखने का नजरिया बदला जाए। अपराध के साथ उसके विकास की प्रक्रिया को समझना भी आवश्यक है। ऐसा होने पर ही उसकी रोकथाम की जा सकती है। इस प्रक्रिया में सबसे पहले शिक्षा आती है, जो हमारी मूलभूत और इंफ्रास्ट्रक्चर के नाकाफी होने की समस्या है। इसके बाद जागरूकता है। कम से कम इतना तो कर ही सकते हैं कि अगर हमारे आसपास प्रतिदिन दिखाई देने वाला बच्चा या युवा नजर न आए तो यह पता कर लें कि वह कहीं गायब तो नहीं कर दिया गया या किसी मुसीबत में तो नहीं फंस गया। 

अभी तो यह हालत है कि गांव-देहात से लेकर नगरों तक में एक-दूसरे के बारे में जानकारी रखने की फुर्सत ही नहीं है और हमारी इसी कमजोरी का फायदा उठाकर अपराधी हमारे पीछे ही छुपकर अपना काम कर जाते हैं और जब पता चलता है तो सिस्टम पर उसके नाकामयाब होने का ठीकरा फोड़ देते हैं। यह बार-बार दोहराया जाना कि बच्चे और युवा देश का भविष्य हैं, बहुत अटपटा लगता है जब वास्तविकता से आमना-सामना होता है। इस कानून से कुछ उम्मीद तो बंधी है कि कदाचित कुछ सूरत बदल जाए।-पूरन चंद सरीन

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