‘तलाक तलाक तलाक’ : एक क्रूर राजनीतिक मजाक

Edited By Yaspal,Updated: 25 Sep, 2018 02:08 AM

divorce divorce divorce  a cruel political joke

राजनीतिक विरक्ति के इस मौसम में उलटी दिशा में शतरंज खेलें, अंत से शुरू करें, और लगता है कि प्रधानमंत्री के मन में यही चल रहा है जब उन्होंने विपक्ष को हैरान कर दिया और तीन तलाक को गैर-कानूनी घोषित करने...

राजनीतिक विरक्ति के इस मौसम में उलटी दिशा में शतरंज खेलें, अंत से शुरू करें, और लगता है कि प्रधानमंत्री के मन में यही चल रहा है जब उन्होंने विपक्ष को हैरान कर दिया और तीन तलाक को गैर-कानूनी घोषित करने के लिए अध्यादेश जारी किया। अध्यादेश जारी कर उन्होंने तुरंत तीन तलाक देने को दंडनीय अपराध बनाया जिसके लिए 3 साल की कारावास की सजा और जुर्माने का प्रावधान किया गया। युद्ध रेखाएं खींची जा चुकी हैं और देखना यह है कि मुस्लिम महिलाएं विवाह अधिकार संरक्षण विधेयक को राज्यसभा में पुन: पेश किया जाता है या यह समाप्त हो जाएगा। इस विधेयक में तलाक-ए-बिद्दत को अपराध माना गया है। प्रश्न उठता है कि इस विधेयक के बारे में आम सहमति क्यों नहीं बन रही है जिसमें मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों के संरक्षण का प्रावधान किया गया है और एक कुरीति को समाप्त किया गया है। क्या विपक्ष इस बात पर अड़ा हुआ है कि इस विधेयक को संसद की स्थायी समिति को भेजा जाए जो इन सुझावों पर विचार करे कि क्या ऐसा करने वाले व्यक्ति के विरुद्ध मुकद्दमा चलाने से पूर्व उसे जमानत दी जाए ताकि इस कानून का दुरुपयोग रोका जा सके और महिला को अपने और अपने बच्चों के लिए पति से गुजारा भत्ता मिल सके। वह महिला अपने अल्पव्यस्क बच्चों की अभिरक्षा की हकदार हो।

विपक्ष भाजपा पर लगा रहा आरोप
कुल मिलाकर यह सब राजनीति का खेल है। अध्यादेश या विधेयक का उपयोग आगामी 5 विधानसभा चुनावों में वोट प्राप्त करने के लिए किया जाएगा। यदि यह विधेयक पारित हो जाता तो सरकार को मुस्लिम महिलाओं का समर्थन मिलता और वे इस गैर-इस्लामिक स्वेच्छाचारी प्रथा को समाप्त करने के लिए सरकार का समर्थन करतीं। भाजपा दशकों से मुस्लिम महिलाओं के कष्टों के लिए विपक्ष को दोषी बता रही है और विपक्ष पर आरोप लगा रही है कि वह महिलाओं को न्याय दिलाने, उनकी गरिमा स्थापित करने तथा उन्हें समानता देने के एक प्रगतिशील विधेयक में अड़चन पैदा कर रही है, जबकि विपक्ष भाजपा पर आरोप लगा रहा है कि  यह अध्यादेश या विधेयक मुसलमानों को परेशान करने के लिए लाया गया है। उसका मानना है कि एक सिविल अपराध को दंडनीय अपराध बनाने की आवश्यकता नहीं है और पति को जेल की सजा देकर महिला का जीवन और दयनीय बन जाएगा क्योंकि महिला और उसके बच्चों को गुजारा भत्ता देने के लिए कोई नहीं होगा।

हैरानी इस बात पर भी होती है कि अपनी पत्नियों को छोडऩे वाले हिन्दू पुरुषों के बारे में ऐसे ही प्रावधान क्यों नहीं किए गए हैं? विपक्ष का कहना है कि मानवीय मुद्दे को राजनीतिक फुटबाल बना दिया गया है और कुल मिलाकर दोनों ही पक्ष महिलाओं के अधिकारों के बारे में वोट बैंक की राजनीति कर रहे हैं। कुछ लोग इस विधेयक की यह कहकर आलोचना कर रहे हैं कि यह मुस्लिम पुरुषों के विरुद्ध है तथा उसकी पत्नी की सहमति के बिना तीन तलाक देने पर उसके विरुद्ध मुकद्दमा चलाया जा सकता है। जबकि दूसरी ओर हिन्दू पुरुष अपनी पत्नी से अलग होने पर यदि अपनी पत्नी से बलात्कार करता है तो उसके विरुद्ध मुकद्दमा नहीं चलाया जा सकता जब तक उसकी पत्नी सहमत न हो। इस विसंगति को दूर किया जाना चाहिए। कुछ लोगों का मानना है कि यदि तुरंत तीन तलाक देने की प्रथा को अवैध घोषित किया जाता है तो फिर तलाक-ए-बिद्दत देने वाले व्यक्ति को जेल की सजा कैसे दी जा सकती है।

2019 के चुनाव में होगा अहम मुद्दा
कुछ लोगों का यह भी मानना है कि इस कानून के माध्यम से सरकार पिछले दरवाजे से एक समान नागरिक संहिता लाने का प्रयास कर रही है। यदि राज्यसभा इसे संसद के शीतकालीन सत्र में पारित भी कर देती है तो फिर इन नए संशोधनों की मंजूरी के लिए उसे लोकसभा में वापस भेजा जाएगा तथा 2019 के चुनाव तक भाजपा और विपक्ष दोनों के लिए यह एक मुद्दा बन जाएगा। इस विधेयक के माध्यम से दोनों अपनी छवि चमकाने और एक-दूसरे पर आरोप लगाने का कार्य करेंगे। पहली बार नहीं है कि हमारे नेताओं द्वारा महिलाओं के अधिकारों का उपयोग राजनीतिक मुद्दे के रूप में किया जा रहा है। इसकी शुरूआत 1986 में हो गई थी जब राजीव गांधी सरकार ने शाहबानो मामले में उच्चतम न्यायालय के ऐतिहासिक निर्णय को पलट दिया था। कांग्रेस सरकार ने मुसलमानों का पक्ष लेते हुए संसद से मुस्लिम महिलाएं (विवाह विच्छेद पर अधिकार संरक्षण) अधिनियम पारित करवाया और इसके द्वारा तलाकशुदा महिला को किसी तरह के गुजारे भत्ते से वंचित किया। 31 वर्ष बाद फिर पिछले अगस्त में एक नया इतिहास बना जब उच्चतम न्यायालय की 5 सदस्यीय खंडपीठ ने उस कानून को असंवैधानिक घोषित किया जिसमें मुस्लिम पुरुषों को तीन बार तलाक कहने से अपनी पत्नी को तलाक देने की अनुमति दी गई थी।

न्यायालय ने इस तथ्य पर ध्यान नहीं दिया कि तीन तलाक एक धार्मिक प्रथा का अभिन्न अंग है। दिसम्बर में लोकसभा ने मुस्लिम महिलाएं विवाह अधिकार संरक्षण विधेयक पारित किया जिसके अंतर्गत मुस्लिम पुरुषों द्वारा तलाक-ए-बिद्दत की घोषणा को शून्य माना गया और उसे एक संज्ञेय और गैर-जमानती अपराध बनाया गया। 32 वर्ष बाद हमने एक चक्र पूरा कर दिया है और फिर यह विधेयक सरकार और विपक्ष के किंतु-परंतु की राजनीति में फंसा हुआ है। उदार मुसलमान मानते हैं कि तीन तलाक और निकाह हलाला गैर-इस्लामी और इस्लाम के विरुद्ध हैं। इसके लिए वे पैगम्बर की पत्नी का उदाहरण देते हैं जो एक विधवा कारोबारी थी और पैगम्बर से 15 वर्ष बड़ी थी जबकि उनकी छोटी पत्नी आएशा युद्ध में सैनिकों का नेतृत्व कर रही थी और यह इस बात का प्रमाण है कि इस्लाम में महिलाओं को समान दर्जा दिया गया है। वे ङ्क्षलग समानता की बात भी करते हैं तथा इस्लामिक महिलावाद को एक नई आधुनिक प्रवृत्ति मानते हैं। इसीलिए आज अनेक भारतीय मुस्लिम महिलाएं इस्लाम की भावना पर प्रश्न उठाती हैं। हाल के एक राष्ट्रीय सर्वेक्षण के अनुसार 88 प्रतिशत मुस्लिम महिलाएं चाहती हैं कि तीन तलाक और बहु विवाह जैसी पितृ सत्तात्मक कानूनी प्रथाओं को समाप्त किया जाए। वे चाहती हैं कि सरकार परम्परागत इस्लामी अदालतों पर निगरानी रखे जबकि 95 प्रतिशत महिलाओं ने मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के बारे में भी नहीं सुना है।

मुस्लिम महिलाओंं में है तलाक की दर अधिक
कुल मिलाकर यह कानून गेम चेंजर है और इसका आने वाले समय में दूरगामी प्रभाव पड़ेगा। इसके माध्यम से न केवल मुस्लिम महिलाएं मध्यकालीन पर्सनल लॉ से मुक्त होंगी अपितु उन्हें कानून के समक्ष समानता भी मिलेगी और उनके लिंग के आधार पर भेदभाव के विरुद्ध उन्हें कानूनी संरक्षण भी मिलेगा। मुस्लिम महिलाओं में तलाक की दर अधिक है। जनवरी 2017 और सितम्बर 2018 के बीच तुरंत तीन तलाक के 430 मामले प्रकाश में आए हैं। 2011 की जनगणना के अनुसार मुस्लिम महिलाओं में तलाक की दर 3.53 है जबकि अन्य सभी धर्मों में यह 1.96 है। इसके साथ ही एक मुस्लिम पुरुष पर 3.7 मुस्लिम महिलाओं ने तलाक दिया है।

5 राज्यों के आंकड़ों के विश्लेषण से पता चलता है कि जहां पर मुसलमानों की जनसंख्या अखिल भारतीय औसत 14 प्रतिशत से अधिक है वहां पर मुस्लिम महिलाओं में तलाक की दर अन्य सभी धर्मों से अधिक है। उत्तर प्रदेश, झारखंड और बिहार में हिन्दुओं की तुलना में मुसलमानों में तलाक की दर ऊंची है, जबकि जम्मू-कश्मीर, पश्चिम बंगाल और केरल में विवाह विच्छेद की दर सबसे अधिक है। वैवाहिक कानूनों का विनियमन इस्लामिक देशों में स्वीकार किया गया है और इसे शरिया के विरुद्ध नहीं माना जाता है। वस्तुत: अनेक इस्लामिक देशों में मुस्लिम पर्सनल लॉ में सुधार किया गया है और इसे संहिताबद्ध किया गया है। सीरिया, ईरान, ट्यूनीशिया, मोरक्को, सऊदी अरब और पाकिस्तान सहित 22 देशों में बहु विवाह प्रथा पर प्रतिबंध लगाया गया है। हमारे देश में गत वर्षों में संकीर्ण व्यक्तिगत और राजनीतिक लाभ के लिए धर्म के दुरुपयोग से माहौल खराब हुआ है और इसका सीधा संबंध वोट बैंक की राजनीति से है जिसमें रहीम और अल्लाह को चुनावी पोस्टर बना दिया गया है। फिर इस मुद्दे का समाधान क्या है?

हमारे शासकों सहित किसी भी व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति के जीवन के बारे में निर्णय करने, उसे निर्देश देने या बर्बाद करने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। 1985 में शाहबानो को गुजारा भत्ता देने से लेकर तुरंत तीन तलाक पर प्रतिबंध लगाने की शायरा बानो की अपील में देखना यह है कि इस राजनीतिक गतिरोध को कौन तोड़ता है और इस समुदाय की महिलाओं को कौन बंधनमुक्त करता है। क्या यह राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप के खेल को समाप्त करेगा? क्या महिलाओं के साथ क्रूर मजाक जारी रहेगा या मोदी अपने इस कदम में सफल होंगे? - पूनम आई. कौशिश

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