सार्वजनिक बैंकों के बोर्डों की गुणवत्ता एक-समान नहीं होती

Edited By Punjab Kesari,Updated: 21 Mar, 2018 03:25 AM

the quality of the boards of public banks is not uniform

वर्ष 2017 के अंतिम दिनों के दौरान अरबपति हीरा व्यापारी नीरव मोदी एक बड़े भारतीय निजी बैंक के मुम्बई स्थित कार्यालय में उसके दो निदेशकों के साथ बैंक के सी.ई.ओ. एवं प्रबंध निदेशक के कक्ष में गया। उनकी मुलाकात ज्यादा लंबी नहीं थी। नीरव मोदी, जिसने देश...

वर्ष 2017 के अंतिम दिनों के दौरान अरबपति हीरा व्यापारी नीरव मोदी एक बड़े भारतीय निजी बैंक के मुम्बई स्थित कार्यालय में उसके दो निदेशकों के साथ बैंक के सी.ई.ओ. एवं प्रबंध निदेशक के कक्ष में गया। उनकी मुलाकात ज्यादा लंबी नहीं थी। 

नीरव मोदी, जिसने देश के दूसरे सबसे बड़े सार्वजनिक बैंक पंजाब नैशनल बैंक की बैलेंस शीट में एक बड़ा-सा छेद कर दिया था, अपनी किसी कम्पनी के लिए ताजा ऋण लेने के लिए नहीं आया था। वह अपने वर्तमान बैंक ऋणों के एक हिस्से को एक नई कम्पनी में बदलने के तरीके खोज रहा था ताकि कोष की लागत को नीचे लाया जा सके। प्राइवेट बैंकर ने उसका सहयोग नहीं किया। जब मोदी कमरे से निकला तो सी.ई.ओ. ने दो निदेशकों से कहा कि यदि वे अपनी बोर्ड सीट्स को बचाना चाहते हैं तो मोदी के साथ उसकी दोबारा बैठक की व्यवस्था न करें। 

सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक के सी.ई.ओ. की प्रतिक्रिया भिन्न थी। सम्भवत: बैंकर ने अपने जनरल मैनेजर (ऋण) से मोदी के प्रस्ताव पर ध्यान देने को कहा होगा। उसने ऐसा इसलिए नहीं किया कि वह भ्रष्ट था बल्कि इसलिए कि वह मोदी को अपने साथ लाने वाले बैंक के निदेशकों को निराश करने में कठिनाई महसूस कर रहा था। एक ऐसे व्यक्ति को न कहना इसलिए भी कठिन था, जिसके हीरों के आभूषणों के डिजाइन केट विंस्लेट तथा रोजी हंटिंग्टन जैसी सैलीब्रिटीज हॉलीवुड रैड कारपेट पर निरंतर पहनती हों और भारतीय फिल्म स्टार प्रियंका चोपड़ा जिसका विज्ञापन करती हो। 

सार्वजनिक क्षेत्र के अधिकांश बैंकों के लिए यह एक सांस्कृतिक मुद्दा है जिसे कार्पोरेट गवर्नैंस के अभाव से अलग नहीं किया जा सकता। इसके पीछे क्या कारण हैं और इनका समाधान कैसे किया जा सकता है? जहां कुछ का मानना है कि इस तरह के बैंकों के लिए निजीकरण एक रामबाण है, जहां भारतीय बैंकिंग उद्योग की कुल पूंजी का लगभग 70 प्रतिशत हिस्सा होता है। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की संस्कृति तथा प्रशासनिक ढांचे को कुछ ऐसे मुद्दे प्रभावित करते हैं: 

बोर्ड्स की गुणवत्ता : यद्यपि सरकारी स्वामित्व वाले बैंक बाजारों में सूचीबद्ध हैं, उन्हें कैपीटल्स मार्कीट्स नियामक द्वारा निर्धारित अपने एक-तिहाई निदेशक स्वतंत्र रखने की जरूरत नहीं होती। सार्वजनिक बैंकों के बोडर््स की गुणवत्ता एक समान नहीं होती, अधिकतर निदेशकों के पास दूरदृष्टि नहीं होती तथा कई ऋण लेने वालों के लिए सौदे करवाने में दलाली का काम करते हैं न कि वरिष्ठ प्रबंधन का मार्गदर्शन। 

सी.ई.ओ. की गुणवत्ता तथा कार्यकाल : हाल ही तक इन बैंकों में प्रबंध निदेशकों तथा कार्यकारी निदेशकों की नियुक्ति की प्रक्रिया अस्पष्ट थी और औद्योगिक घरानों, सत्ताधारी राजनीतिक दलों तथा नौकरशाही के प्रभाव में थी। शीर्ष पर अपेक्षाकृत कम कार्यकाल एक त्रुटि है क्योंकि किसी भी नए सी.ई.ओ. को बैंक की कार्यप्रणाली समझने और उस पर काम करने में वक्त लगता है विशेषकर किसी अन्य बैंक से आए अधिकारी को। इसीलिए बॉसिज आम तौर पर तय ढर्रे पर ही चलते हैं। नया सी.ई.ओ. पहली कुछ तिमाहियां तो बुक्स को क्लीयर करने में ही निकाल देता है जो बैंक के लिए हानि का कारण बनता है। 

सार्वजनिक बैंकों में कमजोर वेतन ढांचा : अच्छा वेतन कुशल लोगों को हायर करने तथा उन्हें साथ जोड़े रखने के काम आता है। सार्वजनिक बैंकों में निजी बैंकों के मुकाबले मध्यम प्रबंधन तक वेतन तथा भत्तों के मामले में अधिक अच्छी देखरेख होती है। यहां पर नौकरी की सुरक्षा भी होती है मगर शीर्ष स्तर पर निजी बैंक कई गुणा अधिक वेतन देते हैं। कम से कम दो बैंकों, स्टेट बैंक ऑफ इंडिया तथा बैंक ऑफ बड़ौदा ने अपने कर्मचारियों को स्टॉक ऑप्शन चुकाने का प्रस्ताव दिया है मगर सरकार ने उनके प्रस्ताव को क्लीयर नहीं किया। सार्वजनिक तथा निजी बैंकों के बीच प्रबंधन स्तर पर अंतर की सूची काफी लम्बी है और इसे लेकर कई तरह के सिद्धांत चर्चा में हैं कि कैसे कुप्रशासन से निपटा जाए। यदि हम केवल दो चीजों का समाधान कर दें तो हम सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में व्याप्त कई बीमारियों का उपचार कर सकते हैं। ऐसे बैंकों में प्रशासनिक समस्या की जड़ है सभी स्तरों पर स्थानांतरण तथा तरक्कियां। विभिन्न स्तरों पर बैंक अधिकारियों को उनके बॉसिज के आदेशों का पालन करने के लिए ब्लैकमेल किया जाता है।

यदि वे उनके अनुसार काम नहीं करते अथवा किसी खाते को अपने लिहाज से या अपनी पसंद के तौर पर देखते हैं तो उनके सिर पर किसी नापसंद स्थान पर स्थानांतरण की तलवार लटकी रहती है या फिर उनकी अगली बार होने वाली तरक्की को मिस कर दिया जाता है। स्थानांतरण तीन कारणों से किया जाता है-तरक्की, व्यावसायिक जरूरतों अथवा अनुशासनात्मक कार्रवाई के तहत। इसी अनुशासनात्मक कार्रवाई से डर कर कुछ कर्मचारियों अथवा अधिकारियों को अपने कार्य से समझौता करना पड़ता है।-टी. बंधोपाध्याय

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