सियाचिन ग्लेशियर के ‘भूले-बिसरे पहरेदार’

Edited By ,Updated: 16 Feb, 2016 12:41 AM

siachen glacier nostalgia watchers

भारतीय धर्म ग्रंथों के अनुसार वृक्ष रेखा से ऊपर जितने भी क्षेत्र हैं वे मनुष्य के रहने योग्य नहीं। लोग अपने वानप्रस्थ जीवन की समाप्ति के बाद इन ऊंचे क्षेत्रों तक चढ़कर जाते हैं

(मेजर जनरल मृणाल सुमन): भारतीय धर्म ग्रंथों के अनुसार वृक्ष रेखा से ऊपर जितने भी क्षेत्र हैं वे मनुष्य के रहने योग्य नहीं। लोग अपने वानप्रस्थ जीवन की समाप्ति के बाद इन ऊंचे क्षेत्रों तक चढ़कर जाते हैं और वहां मोक्ष की तलाश करते हैं, जैसा कि पांडवों ने किया था। इस अवधारणा की विज्ञान द्वारा भी पुष्टि होती है। किसी प्रकार के जीव-जंतु और वनस्पति न होने के साथ-साथ ऑक्सीजन की भारी कमी तथा पराबैंगनी किरणों की अत्यधिकता वृक्ष रेखा से ऊपर वाले क्षेत्रों को मानवीय जीवन के लिए बहुत ही अनुपयुक्त बना देती है। बर्फ और बड़े-बड़े पत्थरों को छोड़ वहां अन्य किसी भी प्रकार के स्थानीय संसाधन उपलब्ध नहीं हैं। 

 
जिंदा रहने के लिए प्रत्येक चीज बाहर से लानी पड़ती है और वह भी भारी-भरकम प्रयास से। चुनौतियों के अनूठेपन की थाह इस तथ्य से ही पता चल जाती है कि मानवीय मल की समस्या से निपटने का ही अभी तक कोई हल नहीं मिल सका—न रासायनिक, न जैव वैज्ञानिक और न ही भौतिक। बहुत ही कम तापमान के कारण मल-मूत्र में कोई रासायनिक क्रिया नहीं होती और यह लंबे समय तक जस का तस पड़ा रहता है जिससे स्वास्थ्य के लिए गंभीर समस्याएं पैदा होती हैं।
 
18 हजार फुट की ऊंचाई पर स्थित सियाचिन ग्लेशियर विश्व की सबसे ऊंची युद्ध भूमि है, जो यूरोप की सबसे ऊंची चोटी माऊंट ब्लांक से भी 2226 फुट ऊंची है। स्थानीय भाषा में सियाचिन का अर्थ है ‘जंगली गुलाब की धरती।’ दुश्मन देशों की गतिविधियों के अलावा सैनिकों को बहुत ही प्रतिकूल वातावरण झेलना पड़ता है—बर्फ के तोदे गिरना, बर्फानी तूफान और बर्फ के नीचे छिपी गहरी खाइयां किसी भी समय जानलेवा सिद्ध हो सकती हैं। बर्फ लग जाने (फ्रॉस्ट बाइट) के फलस्वरूप अनगिनत मामलों में शरीर का कोई अंग भी खोना पड़ता है। 
 
जीवन के लिए बिल्कुल ही अनुपयुक्त इस इलाके की रक्षा करते हुए हजारों सैनिक फेफड़ों की सूजन और ऊंचे इलाकों के अन्य रोगों के कारण मौत के मुंह में जा चुके हैं। चूंकि पश्चिमी देशों को इस प्रकार के वातावरण का सामना नहीं करना पड़ता इसलिए दुनिया भर में इस संबंध में बहुत ही कम डाक्टरी शोध हुई है कि अति ऊंचे क्षेत्रों में काम करने के अल्पकालिक और दीर्घकालिक क्या प्रभाव हो सकते हैं। यदि किसी व्यक्ति को मैदानी इलाकों से सीधे सियाचिन लाया जाए तो उसके जिंदा बचने की कोई संभावना नहीं। उसके फेफड़े पर्याप्त मात्रा में हवा खींच पाने में विफल रहेंगे और उसे ऑक्सीजन की वांछित आपूर्ति नहीं मिलेगी और संभवत: वह फेफड़ों में पानी भर जाने के कारण मौत के मुंह में चला जाएगा। ऐसी स्थिति से बचने के लिए सैनिकों को पहले विधिवत अनुकूलीकरण कार्यक्रम में से गुजरना होता है जो कम से कम 4 सप्ताह की अवधि का होता  है।
 
बर्फानी तूफान कई सप्ताह तक जारी रहते हैं और तापमान -60 डिग्री सैल्सियस से भी नीचे लुढ़क जाता है। इस इलाके में हैलीकाप्टर ही कहीं तेजी से आने-जाने का एकमात्र साधन है लेकिन उनका भी अक्सर लंबे समय तक परिचालन अवरुद्ध रहता है। हैलीपैड का निर्माण और परिचालन बहुत बड़ी चुनौती है। 
 
एक बात तो तय है कि ग्लेशियर में सेवाएं देने वाले लोग इससे कभी भी अप्रभावित नहीं रह सकते। ऑक्सीजन की कमी, अत्यधिक पराबैंगनी किरणों को झेलना और लंबे समय तक दुनिया से कटा हुआ जीवन बिताना और वह भी जीवन को लगातार खतरे में डालते हुए— इन सभी बातों का सैनिकों पर अलग-अलग स्तर तक प्रभाव पड़ता है। इन गंभीर मनोवैज्ञानिक दबावों के कारण उनके व्यक्तित्व, मानसिकता और जीवन के प्रति रवैए में बहुत बदलाव आ जाता है। वैसे यह बदलाव सभी लोगों में एक जैसा नहीं होता। कुछ सैनिकों के मामले में शरीर की रक्षात्मक प्रणाली यहां के तनाव को झेल पाने के योग्य नहीं होती और टूटने के कगार तक पहुंच जाती है तथा वे अजीबो-गरीब व्यवहार करने लगते हैं।
 
बहुत से सैनिक प्रचंड मानसिक तनाव से पीड़ित होते हैं। जानलेवा चोटों और क्रूर वातावरण के कारण मृत्यु आम बात बनकर रह जाती है। जीवन की नश्वरता का यह दृश्य उन्हें बहुत ही दार्शनिक दृष्टिकोण की तरफ धकेल देता है और वे अक्सर यह सोचने लगते हैं कि इंसानी जीवन का अंतिम उद्देश्य क्या है। वे परमात्मा और उसकी सर्वव्यापकता के बारे में ङ्क्षचतन करना शुरू कर देते हैं और जरूरत से कहीं अधिक धार्मिक बन जाते हैं तथा प्रार्थनाओं में लीन रहते हैं। 
 
ऐसे भी कई मामले सामने आए हैं जब सैनिक इस ग्लेशियर क्षेत्र में सेवाएं देने के बाद समयपूर्व सेवानिवृत्ति ले लेते हैं और मन की शांति की खोज में किसी आश्रम में चले जाते हैं। यहां का वातावरण सैनिकों के मन में परमात्मा का भय जरूरत से कुछ अधिक ही पैदा करता है जोकि अक्सर उन्हें वहमपरस्ती की हद तक ले जाता है। अधिकतर सैनिक मदिरा पान और मांसाहार से तौबा कर लेते हैं। कुछेक तो व्यक्तिगत कारणों से ऐसा करते हैं लेकिन कुछ अन्य देवताओं को खुश करने के लिए ऐसा करते हैं। कुछ सैनिक असाधारण प्राकृतिक घटनाक्रमों को किसी पराभौतिक शक्ति से जोड़ कर देखना शुरू कर देते हैं और वे स्मृति भ्रम (हैलूसीनेशन) के कारण तथ्य और कल्पना में भेद कर पाने की शक्ति खो बैठते हैं। 
 
ऐसी बातें बेशक मैडीकल साइंस के माध्यम से प्रमाणित नहीं की गई हैं फिर भी लंबे समय तक पराबैंगनी किरणों की अधिकता और ऑक्सीजन की कमी वाले वातावरण में काम करने वाले सैनिकों में मोटे रूप में यह आशंका है कि इनसे मनुष्य नपुंसक हो जाता है। कमांडरों और डाक्टरों द्वारा आश्वासन देने के बावजूद लगभग सभी सैनिकों के मन में यह डर बैठा हुआ है जोकि सेना के लिए चिंता का बहुत बड़ा कारण है।
 
सैनिक स्वभाव से ही बहुत जज्बाती होते हैं और घर से कोई भी पत्र आने पर वे बहुत भावुक हो जाते हैं लेकिन ऑक्सीजन की भारी कमी वाले इस क्षेत्र में भावुकता की अभिव्यक्ति मैदानी इलाकों से एकदम भिन्न है। बहुत से मामलों में पाया गया है कि पत्र बिना खोले और पढ़े ही जवान कई दिनों तक रोते रहते हैं और पत्र पढऩे तक का साहस नहीं जुटा पाते। कुछ मामलों में तो वे खुद में ही सिमट कर रह जाते हैं और गहरे अवसाद में चले जाते हैं। 
 
ऑक्सीजन की कमी के कारण ही सैनिकों की भूख मर जाती है जिससे वे लगातार कमजोर होते रहते हैं। उनमें कुछ खाने की लालसा जगाए रखने के लिए सरकार द्वारा ड्राईफ्रूट और चॉकलेट जैसे अनेक दिलकश पदार्थ उपलब्ध कराए जाते हैं लेकिन अक्सर देखा गया है कि कई सैनिक खाना खाने की बजाय इसे फैंक देते हैं। 
 
इस प्रकार के वातावरण में सैनिकों का नेतृत्व करना बहुत कड़ी अग्नि परीक्षा में से गुजरने जैसा है। सैनिकों का नेतृत्व करने के साथ-साथ कमांडरों को खुद को भी स्वस्थ रखना पड़ता है। यदि कमांडर का व्यवहार ही अस्त-व्यस्त हो जाए तो सैन्य यूनिट का सामान्य काम-काज बुरी तरह प्रभावित होता है। लगभग हर चौकी पर एक ही अफसर को अपने जवानों के साथ पहरेदारी करनी पड़ती है इसलिए अफसरों के मामले में विरक्तता की भावना कुछ अधिक ही गंभीर हो जाती है। बहुत से अफसर अपने जवानों के साथ बिल्कुल पिता जैसा व्यवहार करना शुरू कर देते हैं। 
 
लेकिन इतनी क्रूर परिस्थितियों में भी हमारे शूरवीर सदा ‘चढ़दी कला’ में रहते हैं। इसका सबसे बड़ा प्रमाण तो यही तथ्य है कि गत तीन दशकों के दौरान सियाचिन ग्लेशियर पर तैनात सैन्य टुकडिय़ों में आदेशों के उल्लंघन का एक भी मामला सामने नहीं आया। यह अपने आप में भारतीय सैनिकों की शारीरिक मजबूती और नेतृत्व की उच्च गुणवत्ता का प्रमाण है। आज तक एक भी भारतीय सैनिक ने इस ग्लेशियर पर तैनात किए जाने से खुद को दूर रखने के लिए छूट हासिल करने हेतु आवेदन नहीं किया है। दैनिक जीवन में यहां प्रतिदिन शूरवीरता के अनेकों कारनामे अंजाम दिए जाते हैं जब बर्फ में फंसे अपने किसी साथी को बचाने के लिए अपनी जिंदगियां जोखिम में डालते हैं। 
 
ऐसे में आचार्य कौटिल्य  द्वारा चंद्रगुप्त को दिया गया वह प्रसिद्ध परामर्श याद आता है: ‘‘पाटलीपुत्र हर रात इसलिए शांति से सोता है क्योंकि उसे विश्वास है कि मगध साम्राज्य की सीमाएं भेदकर कोई दुश्मन नहीं आ सकता। ऐसा केवल तभी हो रहा है क्योंकि मौर्य सेना हर अच्छे-बुरे मौसम में दिन और रात व्यक्तिगत दुख-सुख को भूलकर नंगी तलवारों और खुली आंखों से सीमा पर पहरा देती है और ऐसा सालों-साल चलता रहता है। जहां देश के नागरिक  यह सुनिश्चित करने के लिए योगदान करते हैं कि हमारा देश समृद्ध हो, फलता-फूलता रहे वहीं सैनिक इस बात की गारंटी बनते हैं कि एक राष्ट्र सत्ता के रूप में  इसका अस्तित्व बना रहे।’’ 
 
सियाचिन में तैनात हमारे जवान प्रकृति के हर अभिशाप का सामना करते हुए दिन-रात राष्ट्र की सीमाओं के सजग प्रहरी बने रहते हैं। लेकिन इन शूरवीरों का कोई गुणगान नहीं करता। वे पूरे देश से समर्थन और मान्यता के हकदार हैं।
 
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